शनिवार, 29 सितंबर 2012

विस्थापन

कभी विस्थापितों की जिंदगी देखी है। अगर आपने नहीं देखि है,तो कभी भी किसी नए औधोगिक  क्षेत्र में जाकर देखें। एक जिंदगी की तलाश में न जाने कितने लोग अपनी जमीन, अपना देश, अपना गाँव, घर सब कुछ छोड़ कर एक नए अजनबी से शहर में आ जाते हैं। जहाँ सिर्फ एक अच्छी जिंदगी की तलाश रहती है। पर न तो वहां की हवा , न पानी, न खाना, कुछ भी अपना नहीं लगता है। वैसे दिल्ली को भी विस्थापितों का शहर कहा जाता है, पर वहां की भीड़ में ऐसा लगता है की कुछ चेहरे जाने पहचाने से है, अपने से हैं, पर अगर और दुसरे छोटे शहरों या नए बसे आधोगिक क्षेत्र जो की शहरों से बहुत दूर होते हैं उनकी बात की जाये तो बहुत अजीब और कभी-कभी डरावने भी लगते हैं। सुबह से शाम तक एक फैक्ट्री में काम करते रहो और शाम को निकलो तो कोई जानने वाला नहीं फिर रात में सो जाओ, ऐसा लगता है की बाकि साडी दुनिया से संपर्क कट गया हो। और आप ब्रह्माण्ड के किसी दुसरे गृह पर आ गए हो। जीवन में इंसान को क्या-क्या नहीं देखना पड़ता है और ताउम्र पैसों को लेकर इधर से उधर ही भागना पड़ता है क्युकी ये भी कटु सत्य है की बिना पैसों की गाड़ी भी नहीं चलेगी। मनी मैटर करता है , जीवन की बहुत सी खुशियाँ पैसों से ही खरीदी जा सकती है। पैसों का मूल्य बहुत है जीवन में ...खाशकर आज के युग में। हाँ तो बात हो रही थी विस्थापन की, हम सब आजकल विस्थापित हो रहे हैं। किसी नए शहर में खासकर छोटे और नए औधोगिक क्षेत्र में जाकर जिंदगी जीना बड़ा कठिन है। अजीब सी हालत होती है बड़ी घुटन सी होती है।।कमजोर सा महसूस करते हैं। पर वैश्वीकरण के इस दौर में यह एक सच्चाई है और इस झुटलाया नहीं जा सकता है।हमे कोसिस करनी होगी अपने आप को बदलने की और दूसरी संस्कृतियों में स्वय को ढालने की , इश्वर ने जो लिखा है उसे स्वीकार करना होगा।

वैभव अवस्थी


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