शनिवार, 29 सितंबर 2012

बचपन

मेरे बचपन  की कुछ यादें मैंने कविता में पिरोई हैं ....लेखक नहीं हूँ ........तो जो आया उसे शब्दों  में पिरो दिया।


वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।

जब पापा शहंशाह और मैं शहजादा था ....
दस पैसे के दस गोलगप्पे खता था ....
शान से गली में घुमा करता था ....
जिस दिन माँ से एक रुपया मिल जाता था ....
खुद को शहर का निजाम समझता था ....



वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।


तब गली का हर घर अपना घर लगता था ....
अपनी गली और मोहल्ला हमें पूरा जहां लगता था ....
वो माँ से रूठ कर , दादी के हाथ से दाल चावल खाता था ....
अपनी गली को कभी कभी ईडन गार्डन बनता था ....
कईओं के घरों की खिड़कियाँ तोड़ माँ की मार खाता था ....

वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।


दादी की कहानी सुनते सुनते रात को सो जाता था ....
पर आज बड़ा हो गया हूँ ....हकीकत समझता हूँ ....
न मैं शहजादा हूँ ....न पापा शहंशाह थे .....
मैं एक आम आदमी हूँ ...जो खुद को ढूंढ़ते हुए खो चूका है ....

वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।

विस्थापन

कभी विस्थापितों की जिंदगी देखी है। अगर आपने नहीं देखि है,तो कभी भी किसी नए औधोगिक  क्षेत्र में जाकर देखें। एक जिंदगी की तलाश में न जाने कितने लोग अपनी जमीन, अपना देश, अपना गाँव, घर सब कुछ छोड़ कर एक नए अजनबी से शहर में आ जाते हैं। जहाँ सिर्फ एक अच्छी जिंदगी की तलाश रहती है। पर न तो वहां की हवा , न पानी, न खाना, कुछ भी अपना नहीं लगता है। वैसे दिल्ली को भी विस्थापितों का शहर कहा जाता है, पर वहां की भीड़ में ऐसा लगता है की कुछ चेहरे जाने पहचाने से है, अपने से हैं, पर अगर और दुसरे छोटे शहरों या नए बसे आधोगिक क्षेत्र जो की शहरों से बहुत दूर होते हैं उनकी बात की जाये तो बहुत अजीब और कभी-कभी डरावने भी लगते हैं। सुबह से शाम तक एक फैक्ट्री में काम करते रहो और शाम को निकलो तो कोई जानने वाला नहीं फिर रात में सो जाओ, ऐसा लगता है की बाकि साडी दुनिया से संपर्क कट गया हो। और आप ब्रह्माण्ड के किसी दुसरे गृह पर आ गए हो। जीवन में इंसान को क्या-क्या नहीं देखना पड़ता है और ताउम्र पैसों को लेकर इधर से उधर ही भागना पड़ता है क्युकी ये भी कटु सत्य है की बिना पैसों की गाड़ी भी नहीं चलेगी। मनी मैटर करता है , जीवन की बहुत सी खुशियाँ पैसों से ही खरीदी जा सकती है। पैसों का मूल्य बहुत है जीवन में ...खाशकर आज के युग में। हाँ तो बात हो रही थी विस्थापन की, हम सब आजकल विस्थापित हो रहे हैं। किसी नए शहर में खासकर छोटे और नए औधोगिक क्षेत्र में जाकर जिंदगी जीना बड़ा कठिन है। अजीब सी हालत होती है बड़ी घुटन सी होती है।।कमजोर सा महसूस करते हैं। पर वैश्वीकरण के इस दौर में यह एक सच्चाई है और इस झुटलाया नहीं जा सकता है।हमे कोसिस करनी होगी अपने आप को बदलने की और दूसरी संस्कृतियों में स्वय को ढालने की , इश्वर ने जो लिखा है उसे स्वीकार करना होगा।

वैभव अवस्थी


शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

दिल से


मैं शायर नहीं हूँ .....पर जो आया दिल में लिख दिया .....कभी कभी जिंदगी में आप को कुछ लोग मिलते हैं जिन्हें आप ताउम्र नहीं भूल सकते हो ......ऐसे ही किसी की याद में कुछ लिख दिया ......


''तुम्हारी आँखों का काजल , बालों का गजरा .......
कानों के झुमके , हाथों के कंगन ........

बहुत प्यारे थे ये सब ......जब तुम हमारे थे ........


तुम्हारे बदन की खुशबु, सांसों की गर्मी ........
इठला के चलना , इतरा के मुड़ना .......


बहुत प्यारे थे ये सब ......जब तुम हमारे थे ........


तुम्हारा अंदाज रूठने का ......लड़ना बिन बात का .....
प्यार जताना  बात -बात पर, मुंह चिढाना मेरी बात पे ....


बहुत प्यारे थे ये सब ......जब तुम हमारे थे ........


तुम्हारा वो कनखियों से मुझे देखना, दबे होठों से मुस्कराना ......
मुड़  कर मुझे देखना, अकेले में मुझे डाँटना .........



बहुत प्यारे थे ये सब ......जब तुम हमारे थे ........


आज तुम नहीं हो साथ मेरे .....पर यादें हैं तुम्हारी मेरे पास .....
बहुत खुश हूँ मैं आज .....की तू खुश है ...किसी और के साथ .....



बहुत प्यारे थे ये सब ......जब तुम हमारे थे ........


वैभव  अवस्थी


बुधवार, 26 सितंबर 2012

तुम्हारी गली


मित्रों कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं ........सोचा यहाँ लिख दूँ .....अब कोई शायर तो हूँ नहीं .......फिर भी जो दिल में आया लिख डाला .....



मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ....
जहाँ उनके पैरों से फूल खिले  थे ....
उसकी शहद सी मीठी हंसी खिली थी ...
जहाँ उसकी आँखों से काजल  फैला था ....

मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......

वो मोड़ जहाँ से वो पलट कर देखती थी ....
और वो दुपट्टे से अपने चेहरे को ओट देती थी .....
आज भी वो मोड़ उसी जगह पर वहीँ है ......


मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......

जब रात की शबनम उसके गालों को छूती थी .....
और चांदनी उसके बदन को भिगोती थी ....
चन्दन सी खुशबू  उसके उस चांदनी से बदन से आती थी .....


मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......

अफ़सोस गलियां व्ही हैं .....चांदनी वही  है ....
वो मोड़ वहीँ पर है ...बस नहीं है तो वो नहीं है ....
मैं भी हूँ वहीँ पर आज ..पर वो नहीं है ....

पर फिर भी ....


मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ। ...........





वैभव अवस्थी 

मेरा क़स्बा

कभी कभी  इन शहरों की बड़ी बड़ी इमारतों के आस पास घूमता हुआ ....और अपनी जिंदगी की तलाश करते हुए अपने बचपन के दिन और अपना वो छोटा सा शहर बहुत याद आता है ....जहाँ सब अपने थे। छतों से छतें  मिली थी। आसमानों में पतंगे थी।कभी तितली पकड़ने के लोए दौड़े जाते थे।कभी कंचे खेलते पकडे जाने पर बहुत मार भी खाते थे। बिजली नहीं आती थी पर लालटेन की वो रोशनी और उस रौशनी में उड़ते हुए पतंगे .अजीब सा  था सब कुछ ... पर हाँ सकून  था। शाम को जब गाय  का चारा डालते थे और पिताजी सिखाते थे की कैसे दूध निकालते  हैं और आज भी याद है जब 8 वी  में था  और पहली बार पूरी बाल्टी दूध से भरी थी मैंने खुद गाय  का दूध निकाला  था उस दिन मुझे लग रहा था की मैं बहुत ताकत वर हो गया हूँ . ....और हाँ मेरा कालेज  ..... क्या अध्यापक थे हर  घंटा टाइम से लगता और अध्यापक वो भी सरकारी अध्यापक ऐसे पढ़ाते  थे की अगर वो नहीं पढ़ाएंगे तो उनकी तनख्वाह कट जाएगी। ....पूरी सिद्दत से ........पढ़ाते थे .....पर सिनेमा कभी नहीं देख पाए क्युकी छोटा सा शहर था मेरा सब एक दुसरे को जानते थे तो भला ऐसे में सिनेमा देखने का जोखिम कैसा उठा सकते थे ...पर क्रांतिकारी  केबल टीवी आया और नरसिंह राव जी की सरकार ने हमे नए नए बाज़ार दिये .....तब उम्र जयादा नहीं थे ....8-10 के रहे होंगे ......लगता था एक दिन सारा जहाँ लूट लेंगे .....बहुत अच्छा था सब ........नवरात्रों पर पूरा शहर सजाया जाता था ...फिर नवमी पर जो बारात निकलती थी .......वाह  भाई वाह  .....कित्ती भीड़ होती थी ....आस  पास के हजारों गाँव से उस छोटे से कसबे में मेला लग जाया करता था ...सुना है अब भी निकलती है ....पर पिछले ...12 सालों से मैंने नहीं देखी  है .......जब से अपना क़स्बा छोड़ा है ...और आये हैं महानगर की चका चौंध में लगता है बहुत कुछ छूट गया है ....पर कभी कभी वो सब बहुत याद आता है .....आखिर बचपन काटा  है मैंने वहां पर .....पर अब अपना गाजियाबाद से भी बहुत प्यार है,,सायद ये शहर मेरी जवानी की पहली मोहब्बत है .....हाँ और वो वाली मोहब्बत की भी,....आज मैं इस शहर से बहुत प्यार करता हूँ ...और शायद शहर भी ....पर अपने उस छोटे से शहर को मैंने आज भी जिन्दा रखा है अपने दिल के किसी  कोने में ....वहां के गोलगप्पे ...समोसे ...चाट .....आज भी इस हल्दीराम से लाख बेहतर हैं स्वाद में ......खैर यही कह सकता हूँ।।आज इन ऊँची ऊँची इमारतों के बीच में .......

.''''''अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ ...............अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पता हूँ''''''''' .........




वैभव अवस्थी