मेरे बचपन की कुछ यादें मैंने कविता में पिरोई हैं ....लेखक नहीं हूँ ........तो जो आया उसे शब्दों में पिरो दिया।
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
जब पापा शहंशाह और मैं शहजादा था ....
दस पैसे के दस गोलगप्पे खता था ....
शान से गली में घुमा करता था ....
जिस दिन माँ से एक रुपया मिल जाता था ....
खुद को शहर का निजाम समझता था ....
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
जब पापा शहंशाह और मैं शहजादा था ....
दस पैसे के दस गोलगप्पे खता था ....
शान से गली में घुमा करता था ....
जिस दिन माँ से एक रुपया मिल जाता था ....
खुद को शहर का निजाम समझता था ....
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
तब गली का हर घर अपना घर लगता था ....
अपनी गली और मोहल्ला हमें पूरा जहां लगता था ....
वो माँ से रूठ कर , दादी के हाथ से दाल चावल खाता था ....
अपनी गली को कभी कभी ईडन गार्डन बनता था ....
कईओं के घरों की खिड़कियाँ तोड़ माँ की मार खाता था ....
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
दादी की कहानी सुनते सुनते रात को सो जाता था ....
पर आज बड़ा हो गया हूँ ....हकीकत समझता हूँ ....
न मैं शहजादा हूँ ....न पापा शहंशाह थे .....
मैं एक आम आदमी हूँ ...जो खुद को ढूंढ़ते हुए खो चूका है ....
वो बचपन का ज़माना कितना सुहाना था ....
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।
हर कोई अपना था और ज़माना बड़ा प्यारा था।