रविवार, 27 जून 2010

एक नज़्म

प्रिय मित्रो।

नमस्कार

इधर काफी समय से जीवन के झंझावातो में ऐसा फ़सा रहा कि समय ही नहीं मिला कुछ लिख सकूँ। जीवन बहुत कठिन है ये बचपन से सुनता आ रहा था अब यकीन हो गया है कि हम जैसा सोचते है हमेशा वैसा नहीं होता है और कभी कभी बहुत बुरा होता है कल्पना से भी परे। मन बहुत उदास रहता है. जीवन में बहुत कुछ करना है पर ये समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर क्या होगा। ऐसे ही पन्ने पलटते पलटते जनाब निदा फाजली साहेब कि लिखी एक नज़्म पर नज़र पड़ी जो हिंदी फिल्म आहिस्ता आहिस्ता में मशहूर पार्श्व गायिका श्रीमती आशा भोंसले और भूपेन्द्र जी ने गाया था। कई बार सुना भी परन्तु भूल गया था आज जब ध्यान से पढ़ा इसे, तो ये लगा कि बहुत अच्छी नज़्म है और जिंदगी में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आप के लिए मैं उस नज़्म को लिख रहा हूँ। आपको जरुर बहुत पसंद आयेगी क्यूँ कि इस नज़्म से जिंदगी के उस पहलू का पता चलता है जो हम जैसे करोडो हिन्दुस्तानियों के साथ जरुर होता है। आपके लिए-

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता

बुझा सका ह भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता



कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता



इस नज़्म का एक शेर है कि तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो जहा उम्मीद हो इसकी वहा नहीं मिलता....कडवा सच। उम्मीद है कि फाजली साहेब कि ये रचना जरुर पसंद आयेगी।

धन्यवाद

आपका वैभव.