मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ....
जहाँ उनके पैरों से फूल खिले थे ....
उसकी शहद सी मीठी हंसी खिली थी ...
जहाँ उसकी आँखों से काजल फैला था ....
मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......
वो मोड़ जहाँ से वो पलट कर देखती थी ....
और वो दुपट्टे से अपने चेहरे को ओट देती थी .....
आज भी वो मोड़ उसी जगह पर वहीँ है ......
मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......
जब रात की शबनम उसके गालों को छूती थी .....
और चांदनी उसके बदन को भिगोती थी ....
चन्दन सी खुशबू उसके उस चांदनी से बदन से आती थी .....
मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ ......
अफ़सोस गलियां व्ही हैं .....चांदनी वही है ....
वो मोड़ वहीँ पर है ...बस नहीं है तो वो नहीं है ....
मैं भी हूँ वहीँ पर आज ..पर वो नहीं है ....
पर फिर भी ....
मैं अक्सर उन गलियों में जाता हूँ। ...........
वैभव अवस्थी
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