सोमवार, 9 सितंबर 2013

छोटा सा घर

कभी
नन्हे हाथो से
बनाते थे रेत के घर
देख के उनको लगता था
जैसे हम है कोई जादूगर .......
काश आज फिर से बनाऊ वो रेत के घर....
और सबको दे दूँ एक प्यारा सा अपना सा घर......
फिर भगवन से कहूँ की वो भर दे इन में अपनी कायनात के रंग
और हर इन्सान को मिल जाये अपने सपनो का प्यारा सा एक छोटा सा घर.....

शनिवार, 31 अगस्त 2013

रेड लाइट

आज एक रेड लाइट पर वो अचानक दिखी .....
थोड़ी सी भर गयी है ....
पर ये वजन जँच रहा था उस पे
आँखों में उसकी आज भी वही कशिश है ..

पर सूनापन सा था उसकी नजरों में ......
हाथों में मेरा दिया हुआ कंगन घूम रहा था ....

आँचल उसने यूँ लहरा के ओढ़ा  की
मेरी नजरें उनके हुस्न से हट न सकी

पर लाइट हरी हो गयी और वो फिर से चली गई .....
मैं तनहा था ...तनहा रह गया .....

मैं हारा नहीं हूँ

मैं हारा नहीं हूँ अभी ....                                              
अभी उठूँगा मैं ...                                                        ..
लडूंगा मैं ....
फिर गिरूंगा मैं ...
फिर सम्भलूँगा मैं ...

मैं हारा नहीं हूँ अभी .....
थोडा थका हूँ मैं ....
थोडा रुका हूँ मैं ...
थोडा गिरा  हूँ मैं ....
फिर सम्भ्लूँगा मैं

मैं हारा नहीं हूँ अभी ....
मुश्किलों के भवर में डूबा  हूँ मैं ....
हालातों के जालों में फंसा  हूँ मैं
जीवन के हालातों में फंसा  हूँ मैं   ....
फिर सम्भ्लूँगा मैं ..

मैं हारा नहीं हूँ अभी ...
वक्त का मारा हुआ हूँ मैं ....
किस्मत का ठुकराया हुआ हूँ मैं ....
अपनों का गिराया हूँ मैं ....
फिर सम्भ्लूँगा मैं ....

मैं हरा नहीं हूँ अभी ....

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

तेरी कलाइयां



मेरी सारी कायनात जकड़ी हुई हैं इनमें ....
मगर देखने में नर्म हैं तेरी कलाइयां...
मैं अपनी किस्मत को बसाना चाहता हूँ इनमे.....
मगर हर  बार झटक देती हैं तेरी कलाइयाँ......

मेरी जिंदगी की हर सांस फंसी है इनमे....
मगर मुझे छोड़ देती हैं तेरी कलाइयाँ .....

हरे रंग   चूड़ियाँ घूमती  है इनमे... 
मगर बड़ी खूबसूरत हैं   तेरी  कलाइयां..... 

मोहब्बत की सारी कहानियां हैं इनमे.....
मगर मुझे छूने  नहीं  देती हैं तेरी कलाइयां.....

मेरा कंगन पहना लो इन कलायिओं  में ......
तो और हसीं हो जायंगी ये कलाइयां.......

मुझे  पकड़ा दो अपनी ये नाज़ुक कलाइयां...... 
उम्र भर साथ देंगी मेरा फिर तेरी ये कलाइयां.......... 


शनिवार, 13 अप्रैल 2013

कॉलेज वाली सड़क


तपती दोपहर में कॉलेज वाली सड़क पर तुम अपनी बस छोड़कर मेरे साथ पैदल चल देती थी .....
अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे देखते हुए पुरे रस्ते मुस्कराती  थी 
और फिर धुप  से बचने के लिए अपने दुपट्टे को सर से ओढ़ कर उसके दोनों कोने दांतों से चबाती थी ....
रस्ते का वो बरगद का पेड़ जहाँ  बैठकर मेरे कन्धों पर अपना सर  सुस्ताती थी ....
मैं चुपके चुपके से तुम्हारा धुप में गुलाबी हुआ चेहरा देखता था ......
पर तुम हमेशा की तरह अपनी ढेर सारी  हास्टल  की बातों का पिटारा खोल देती थी ......
जब हास्टल  आ जाता था तो मुझे समझाते हुए गली के मोड़ से वापस भेज देती थी ...
पर वो गुलाब की कली  जो मैं कॉलेज के फूलों से तोड़ के तुम्हे देता था …
तुम्हारे बालों में लगी वो कली  मुझे  दूर तक मुझे दिखती  रहती थी ......
आज इस तपती दोपहर में फिर आया हूँ इस कॉलेज वाली सड़क पर ....
पर आज मैं पैदल नहीं हूँ ....तुम्हे बस नहीं छोडनी पड़ेगी ....
पर आज ये सड़क सुनसान है ....और पूछ रही है मुझसे कहाँ हो तुम ....
मैं क्या बताऊँ इस कॉलेज वाली सड़क को .....इस तपती दोपहर में ......