गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

वसीम साहेब की ग़ज़ल

प्रिय मित्रो


नमस्कार



इधर कुछ दिनों से समय नहीं मिला कुछ पढने काकल अचानक बरेली विश्वविधालय के प्रोफेसर साहब आदरणीय 'वसीम बरेलवी ' साहेब की एक ग़ज़ल हाथ लगी, पढ़ के दिल रूमानी हो गयाहमारे मित्रो को जरुर पसंद आयेगी खास कर जो इश्क या मोहब्बत के मारे हैं...हमारी तरह....बड़ा दर्द छिपा है इन शब्दों में...'वसीम' साहेब ने तो कमाल का लिख दिया बड़ी जादूगरी है कलम में साहेब.....तो मोहब्बत करने वालो..के लिए .........

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

यह एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊं उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा




वाह वाह क्या बात है.......उम्मीद है मित्रो को ये शब्द पसंद आयेगे....





धन्यवाद

आपका वैभव